लोकप्रिय संप्रभुता क्या है ? Popular Sovereignty
संप्रभुता के इस सिद्धांत के अनुसार अंतिम शक्ति जनता में निहित रहती है। इस विचारधारा का विकास 16-17वीं शताब्दी में हुआ जब कि राज्यों के निरंकुश (absolute) सता तथा उनके दैवीय अधिकारों (Divine Rights) केे विरुद्ध प्रतिक्रिया चल रही थी। 20 वीं शताब्दी में यह सिद्धांत रूसो Rousseau की मान्यताओं का आधार बन गया। इसको फ्रांस की क्रांति का आधार बनाया गया और अमेरिका की स्वतंत्रता को इस पर आधारित किया गया। उसके बाद लोक प्रभुसत्ता लोकतंत्र (democracy) का आधार एवं पर्याय बन गयी।Popular sovereignty |
सबसे पहले 14 वीं शताब्दी में इतावली दार्शनिक मार्सीलियो ऑफ पादुआ ने पॉप की सत्ता को चुनौती देते हुए लोकप्रिय प्रभुसत्ता के सिद्धांत को नया जीवन प्रदान किया। मार्सीलियो ऑफ पादुआ की विख्यात कृति 'डिफेंसर पेसिस' (Defensor Pacis) (शांंति रक्षक) के अंतर्गत पॉप की सर्वोपरि सत्ता पर प्रबल प्रहार किया।
मार्सीलियो ने यह सिद्ध करने का बीड़ा उठाया कि पोपतंत्र और पुरोहित वर्ग (Clergy) को न केवल लौकिक मामलों में बल्कि आध्यात्मिक (spiritual) मामलों में भी सर्वसाधारण के अधीन रहना चाहिए। सर्वसाधारण की सर्वोपरि सत्ता के सिद्धांत को ही मार्सीलियो ने गणतंत्रवाद (Republicanism) के रूप में मान्यता दी। उसने कहा कि पुरोहित वर्ग की शक्ति विविध संस्कार संपन्न करने और दिव्य कानून (Divine Law) की शिक्षा देने तक सीमित रहनी चाहिए। परंतु उसके इन कार्यों का विनियमन (Regulation) और नियंत्रण (Control) भी सर्वसाधारण और उसकी निर्वाचित सरकार के हाथों में रहनी चाहिए।
16 वीं शताब्दी में प्रजातंत्र (Democracy) के विकास के साथ-साथ इस सिद्धांत को भी महत्व प्राप्त हुआ। यह सोचा जाने लगा कि जनता ही राजनीतिक सत्ता की अंतिम रक्षक होती है। वैधानिक संप्रभु यदि जानबूझकर और निरंतर रूप से जनता की इच्छाओं का विरोध करें तो यह अधिक समय तक नहीं रह सकता क्योंकि जनता उसके विरूद्ध क्रांति कर देगी और उसके स्थान पर एक नई सरकार की स्थापना कर देगी।
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17 वीं शताब्दी के शुरू में जर्मन न्यायविद् जोहानेस आल्थ्यूजियस (Johannes althugiys) ने लोकप्रिय संप्रभुता की संकल्पना को आगे बढ़ाया। उसके अनुसार प्रभुसत्ता ऐसा कार्य करने की सर्वोच्च शक्ति है जो राज्य के सदस्यों के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए आवश्यक है।
लोकतंत्र के अंतर्गत शासकों को जनसाधारण के अंकुश में रहकर काम करना पड़ता है। राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में लोकप्रिय प्रभुसत्ता की संकल्पना इतिहास की महत्वपूर्ण देन है।
लोक प्रभुसत्ता का सिद्धांत पर्याप्त आकर्षक एवं मान्य होता हुआ भी अनेक भ्रमों को जन्म देता है। यह नहीं कहा जा सकता कि जिन लोगों को प्रभु शक्ति सौंपी गई है वह लोग कौन हैं? इसके अतिरिक्त लोगों का जनसमूह संगठित भी नहीं हो सकता,जबकि संगठन (Organization)
का होना संप्रभुता का एक आवश्यक गुण है।
लोक शब्द का प्रयोग दो अर्थ में किया जाता है एक और तो इसे संपूर्ण असंगठित एवं अनिश्चित जनता के लिए और दूसरी और इसे निर्वाचकों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। जहां तक प्रथम प्रकार के अर्थ का संबंध है, इसको प्रभुसत्ता नहीं कहा जा सकता। यदि लोक प्रभुसत्ता निर्वाचक मंडल (Electorate) की प्रभुता को माना जाए तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि निर्वाचकों की प्रभुसत्ता उस समय तक वैध (legal) नहीं होती जब तक कि वह संविधान द्वारा निर्धारित मार्गों द्वारा अभिव्यक्त न हो।
गार्नर (Garner) के अनुसार "लोकप्रिय संप्रभुता का अर्थ निर्वाचक समूह की शक्ति से अधिक कुछ भी नहीं है।"
यह केवल उन्हीं देशों में संभव है जहां व्यापक मताधिकार की प्रणाली को काम में लिया जाता है तथा जो वैधानिक मार्गों द्वारा जनता की इच्छा को व्यक्त करती है। वैध रूप में व्यक्त न किया गया जनमत अपने आप में चाहे कितना ही प्रभावशाली हो वह वैध नहीं हो सकता।
लोक प्रभुता (popular sovereignty) को केवल निर्वाचकों में निहित मानना सही नहीं है, क्योंकि निर्वाचक संपूर्ण जनसंख्या का एक छोटा भाग होता है केवल इस छोटे भाग की प्रभुसत्ता को लोक प्रभुसत्ता का कहना अनुपयुक्त है।
18 वीं शताब्दी में लोकप्रिय संप्रभुता की संकल्पना फ्रांसीसी विचारक J.J.Rousseau (रूसो) के राजनीतिक दर्शन का सार तत्व है। रूसो ने स्पष्ट रूप से सत्ता का स्त्रोत जनता को बताया है। उसके अनुसार संप्रभुता का निवास स्थान सामान्य इच्छा (General will) में होता है। उदारवाद (Liberalism) और लोकतंत्र (Democracy) के समर्थकों के लिए यह प्रेरणा स्रोत रही है।
रूसो के अनुसार जिस सामाजिक समझौते (Social Contact) से राज्य की उत्पत्ति होती है, सर्वोच्च संप्रभुता उसी में होती है और प्रभुता की सही रूप से अभिव्यक्ति सामान्य इच्छा में ही देखने को मिलती है। सामान्य इच्छा (General will) किसी समुदाय के सभी सदस्यों की वास्तविक इच्छा (Real will) होती है, क्योंकि यहां वह अपने सभी स्वार्थ भूलकर पूरे समुदाय/समाज के हित में कार्य करने की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। कानून की सामान्य इच्छा की ही अभिव्यक्ति होती है। उसने प्रभुसत्ता को निश्चयात्मक (Determinate) माना है क्योंकि सामान्य इच्छा पूरे समुदाय की होती है ना कि व्यक्ति विशेष की।
रूसो ने दो कारणों से लोकप्रिय संप्रभुता को सर्वोच्च माना है -1. प्रभुसत्ता का आधार सामान्य इच्छा (general will) है। यह प्रभुसत्ता के अधिकार पक्ष को व्यक्त करता है। 2. प्रभुसत्ता का उद्देश्य सार्वजनिक कल्याण (public welfare) है। यह प्रभुसत्ता के कर्तव्य पक्ष को व्यक्त करता है। अतः दोनों में समन्वय ही लोकतंत्र की आधारशिला है।
● लोकप्रिय संप्रभुता की अनिवार्य शर्ते :--
1. सार्वजनिक मताधिकार public suffrage2. विधानमंडल पर सर्वसाधारण के प्रतिनिधियों का नियंत्रण
3. राष्ट्र के वित्त पर जनप्रतिनिधियों के सदन का नियंत्रण।
लोकप्रिय प्रभुसत्ता का मूल है कि शासक वर्ग शासन का संचालन जनहित (Public Interest) को ध्यान में रखकर करें, अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु नहीं। शासक तभी तक सत्ता में रहेगा जब तक उसे जनसाधारण का विश्वास प्राप्त हो। लोकप्रिय संप्रभुता का सिद्धांत प्रभुसत्ता की कानूनी संकल्पना को नैतिक (Moral) और दार्शनिक (Philosophical) आधार प्रदान करता है।
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1 टिप्पणियां
Samprabhuta ka uchcha dharmadhyaksha kiss khte he
जवाब देंहटाएंThanks for Massage